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नारी जीवन में वर्जनाओं की भूमिका

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“मैं फसल उगाती हूँ
वह खा जाता है
चुनती हूँ लकड़ियाँ
वह ताप लेता है
मैं तिनका तिनका बनाती हूँ घर
वह गृह स्वामी कहलाता है
उसे चाहिए बिना श्रम किये
सब कुछ
मैं सहती जाती हूँ
जानती हूँ
ऐसे समाज में रहती हूँ
जहाँ अकेली स्त्री को
बदचलन साबित करना
सबसे आसान काम है
और यह बात मेरा मरद
अच्छी तरह जानता है |”

अपनी पोस्ट को, सुश्री रंजना जायसवाल की इस कविता से, आरम्भ कर रही हूँ. हमारे समाज में स्त्री को लेकर कुछ ऐसे पूर्वाग्रह हैं- जो युगों युगों से चले आ रहे हैं। स्त्रियों के साथ होने वाले अत्याचारों का एक प्रमुख कारण है, उन पर थोपे गये दोगले नैतिक- मानदंड। एक ऐसी स्त्री, जो पुरुष द्वारा त्यागी गयी हो, विधवा होने के कारण एकाकी जीवन व्यतीत कर रही हो अथवा दहेज़ के अभाव में कुंवारी रह गयी हो – नित नई अग्नि- परीक्षा से गुजरती है। जबकि अकेले रहने वाले पुरुष के चरित्र पर, कोई उंगली नहीं उठाता। तभी तो ये औरतें, व्यभिचारियों के निशाने पर रहती हैं। नारी के यौन- शोषण में, वर्जनाओं की मुख्य भूमिका है। छेड़खानी का विरोध करने वाली स्त्री को ही, बेहया और चरित्रहीन करार दे दिया जाता है। इसके चलते, दुराचारियों के हौसले बुलंद रहते हैं। नारी द्वारा लगाये गये, दुर्व्यवहार के आरोप को, वृहद दृष्टिकोण से तौलने- परखने का प्रयास किया जाना चाहिए। स्त्री के प्रति संकुचित सोच, उसे कमजोर बनाती है और शोषण के कुचक्र में झोंक देती है। एक सच्चा उदाहरण देना चाहूंगी। मेरी एक परिचिता थीं जो बहुत मेधावी छात्रा थीं. एक दिन वे अपने संस्थान की गैलरी से गुजर रही थीं। संयोग से आस- पास कोई नहीं था। इतने में एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी ने उन्हें अश्लील इशारा किया। उनके लिए अपनी आँखों पर विश्वास करना कठिन था। उस व्यक्ति का सामाजिक स्तर, उन दीदी से कहीं नीचे था। कदाचित एक लडकी का, पढ़- लिखकर जीवन में ऊपर उठना, उसकी कुंठित मनोवृत्ति को सुहाया नहीं। उसे पूर्ण विश्वास था कि दीदी इस घटना को अनदेखा कर देंगी और बात आई- गयी हो जायेगी।

किन्तु वे हार मानने वालों में से नहीं थीं। उन्होंने यह बात सबसे पहले, अपने साथ पढने वाले लडकों को बतायी। फिर उन लड़कों के जरिये यह बात, टीचिंग- स्टाफ तक पहुंची। उनके पुरुष सहपाठियों ने उस कर्मचारी को जोरों से धमकाया। सभी सहपाठी उनके समर्थन में उठ खड़े हुए। अध्यापक उन्हें व्यक्तिगत तौर पर जानते थे- लिहाजा वे भी दीदी के साथ हो लिए. बात उस कर्मचारी को डिसमिस करने तक आगे बढ़ी। अंततः उस व्यक्ति ने, दीदी को ‘बहन’ कहकर और पाँव छूकर, उनसे माफ़ी मांगी। अपने परिवार व छोटे छोटे बच्चों की खातिर, मामले को रफा दफा करने की गुजारिश की- तब जाकर उसकी जान छूटी। यदि हर स्त्री को इसी प्रकार, लोगों का नैतिक समर्थन मिलता रहे तो अपराधी अवश्य डरेंगे। हमारा सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास कुछ ऐसा रहा है कि किसी न किसी रूप में नारी का दमन हुआ है। लम्बे विदेशी शासन के दौरान, आक्रान्ताओं की कुदृष्टि से बचाने के लिए, नारी को घर की चारदीवारी में कैद कर दिया गया। पर्दा प्रथा लागू हो गयी। बाल-विवाह भी चलन में आया। परन्तु इस सबसे, नारी का अस्तित्व नगण्य होने लगा। शिक्षा के मूलभूत अधिकार को खोकर, वह अपने पतिगृह के लिए नौकरानी और पति के लिए भोग्या एवं बच्चे पैदा करने की मशीन बनकर रह गयी।

जो पुरुष अपने बचपन में माँ को, सदा पिता से प्रताड़ित होते हुए देखता रहा हो; अपनी अशिक्षित बहनों के साथ होने वाले, सौतेले व्यवहार का साक्षी रहा हो- उसके अवचेतन में नारी की छवि एक दोयम दर्जे के प्राणी की ही होगी। ऐसा व्यक्ति क्या नारी का सम्मान कर सकेगा? इसी मानसिकता के चलते नारी, शैशव में पिता, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में बेटे के दुर्व्यवहार का शिकार होती रही। क्या घर से बाहर कदम न रखने पर, उसकी सुरक्षा सुनिश्चित हो सकी? निकट सम्बन्धियों, ससुर, जेठ आदि के द्वारा उसकी अस्मत पर हमले होते रहे। सुश्री आशापूर्णा देवी के कालजयी उपन्यास, ‘प्रथम प्रतिश्रुति’ की नायिका के दर्द से, पाठक अनभिज्ञ नहीं हैं। सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की कथा ‘मंझली रानी’ की नायिका निर्दोष होते हुए भी, जेठानी और समाज द्वारा ‘कुलटा’ ठहरा दी जाती है. बाल- विवाह और अशिक्षा का एक सुन्दर उदाहरण इस कहानी से मिलता है. सभी पुरुष एक से नहीं होते। शिक्षित माता के सान्निद्य में पला- बढ़ा पुरुष, जिसने अपनी माता से भावनात्मक सुरक्षा और संस्कार पाए हों – नितांत विपरीत सोच रखता है। समय के साथ नारी की शक्ति बढ़ी, वह शिक्षित हुई। उस पर भी, वह पुरुष के समकक्ष न बन सकी। पढ़ी लिखी कामकाजी औरत को, घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी, संभालनी पड़ती है। वह पैसे कमाकर देती है- किन्तु पति बहुधा, घर के कामों में, उसका हाथ नहीं बंटाता। क्योंकि ऐसा करने से ,उसका पुरुषत्व आहत होता है। इस प्रकार, बरसों बाद भी नर; नारी के प्रति अपनी बीमार सोच को, नहीं बदल सका।

बॉस के रूप में एक महिला को देखना, कई पुरुषों को अखरता है. अपनी महिला सहकर्मी को आगे निकलते देख, कुछ पुरुष ईर्ष्यावश; उस पर ‘बॉस’ से अनैतिक सम्बन्ध रखने का, आरोप तक लगा देते हैं. नारी की विडम्बना यह है कि यदि वह घर के बाहर, वजूद तलाशे- तो अपने परिवार और बच्चों की उपेक्षा से, उसे आत्मग्लानि होती है. लेकिन यदि वह परिवार के लिए अपने हितों को त्याग कर, घर में बैठी रहे- तो भी उसके त्याग को, सही तौर पर, कोई समझ नहीं पाता. एक गृहणी अपनी छोटी- छोटी जरूरतों के लिए, पति पर निर्भर करती है और इस कारण समय समय पर, उसकी उपेक्षा और तिरस्कार को भी झेलती है. हमारे समाज में स्त्री पर पाबंदियाँ लगाना और उसके पंख कतरना एक सहज प्रवृत्ति है. जब चाहे उसे ‘रौंद’ देना भी, इस घृणित मानसिकता का ही हिस्सा है. मेरा दावा है कि जो लड़का अपने परिवार में, पिता द्वारा, माँ/ बहनों का सम्मान होते हुए देखता हो. जिसने बालपन से माँ, बहनों का स्नेह पाया हो; शिक्षित, शक्तिरूपा माता द्वारा संस्कार और मार्गदर्शन पाया हो- वह कभी व्यभिचारी हो ही नहीं सकता.

वर्जनाएं सदैव बुरी हों ऐसा नहीं है. स्त्रियाँ कोमलांगी होती है- अतः यह उनके लिए, कहीं न कहीं जरूरी भी हैं. वर्जनाओं के अतिक्रमण का दुष्प्रभाव, विदेशी जीवन- शैली में देखा जा सकता है. इस प्रकार जो वर्जनाएं, मर्यादा का पालन करना सिखाएं- अच्छी हैं. आज की युवा पीढ़ी को यह समझने की, बहुत जरूरत है. उच्चवर्ग और निम्नवर्ग- जहां वर्जनाओं का महत्व कमतर है; स्त्रियाँ व पुरुष दोनों ही, आचरणविहीन हो सकते हैं. लेकिन वर्जनाओं को, अन्यायपूर्ण और गलत तरीके से लागू करना भी ठीक नहीं. एक लड़की यदि लड़- झगड़कर, घर से निकल जाये – चरित्रहीन मानी जाएगी( भले ही उसकी देह अनछुई और पवित्र हो). वह घर की दहलीज़ पर, दुबारा पैर नहीं रख सकेगी किन्तु इसके विपरीत घर का लड़का रूठकर, कहीं चला जाये तो उसके पुनरागमन पर खुशियाँ मनाई जायेंगी; उसका स्वागत किया जाएगा. क्या चरित्र के मानदंडों को, समान रूप से, पुरुष पर लागू करने की आवश्यकता नहीं?

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