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मातृसत्ता बनाम पितृसत्ता

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देश के मातृसत्ता वाले राज्यों का सच
हमारे राष्ट्र के अधिकतर प्रान्तों में कुटुंब का मुखिया पुरुष ही होता है. पुरुष के नाम से ही वंश चलता है. पैतृक संपत्ति पर अधिकतर, परिवार के बेटों का ही कब्जा होता है. बेटियाँ तो दहेज़ की एकमुश्त रकम देकर विदा कर दी जाती हैं. फिर तो उनका पारिवारिक व्यवसाय, जमीन और जायदाद आदि से कोई वास्ता नहीं रह जाता. कहीं कहीं अपवाद भी हो सकते हैं; पर समाज की मानसिकता और प्रतिबद्धता, इसी मान्यता को पुष्ट करती है.

आज मैं, देश के दो ऐसे प्रमुख राज्यों की चर्चा करना चाहूंगी जहां ‘कथित’ तौर पर मातृसत्ता का बोलबाला है. ये हैं केरल और मेघालय. पिछले सत्रह सालों से केरल में हूँ. यहाँ का समाज कुछ मामलों में बहुत उन्नत है. लोग अपेक्षाकृत ईमानदार और योजनाबद्ध तरीके से काम करने वाले हैं. जहां तक मातृसत्ता का सवाल है; सामाजिक जीवन के कुछ पहलुओं में यह अवश्य झलकती है. यथा- परिवार में कन्या शिशु का जन्म शुभ माना जाता है, स्त्रियों को शिक्षा एवं विकास के समान अवसर प्रदान किये जाते हैं. दहेज़- हत्याएं अथवा उत्पीडन सुनने में नहीं आते. माता- पिता विवाहित बेटी के घर भी, निःसंकोच होकर रह सकते हैं. पर इस मातृसत्ता की पृष्ठभूमि में, अतीत का एक काला चेहरा भी है, जो कईयों ने नहीं देखा.

बरसों पहले, यहाँ की दो प्रमुख जातियों नम्बूदरी (ब्राह्मण) एवं नायर के मध्य; एक सर्वमान्य अनुबंध हुआ करता था. इसके तहत, नम्बूदरी जाति के पुरुष बेखटके; कुँवारी नायर कन्याओं के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना सकते थे (बिना वैवाहिक बंधन में बंधे हुए). उन कन्याओं के परिवारवाले, इसे बहुत अच्छा मानते थे; क्योंकि उनका सोचना था कि इस प्रकार जो संतान जन्म लेगी, वह बहुत बुद्धिमान और योग्य होगी(पिता के उच्चजाति नम्बूदरी से होने के कारण). उस संतान को पिता का नाम नहीं दिया जा सकता था, इसलिए वंश को माँ के नाम से ही चलाना पड़ता था. परन्तु इससे समाज में बहुत अनाचार फैलने लगा. नम्बूदरी पुरुष उच्छ्रन्खल होते गये. क्योंकि उनकी जाति में परिवार के बड़े बेटे को ही कानूनी विवाह( वेळी) की अनुमति थी. परिवार के अन्य बेटे नायर एवं अन्य निचली जातियों की कन्याओं से दैहिक सम्बन्ध( सम्बन्धम या वैकल्पिक विवाह के तहत) बना सकते थे. इस प्रकार नम्बूदरी कन्याओं के लिए वरों की कमी होने लगी. उन युवतियों को या तो ‘वेळी’ के तहत ऐसे अधेड़ पुरुष से विवाह करना पड़ता, जिसका पहले भी कई बार विवाह हो चुका हो या फिर ताउम्र कुँवारी रहना पड़ता. नम्बूदरी पुरुषों को, नारी के उपभोग का अवसर लगातार मिलता रहा; वहीँ उनकी स्त्रियों को केवल एक बार ही विवाह की अनुमति थी. ‘सम्बन्धम’ द्वारा जो सम्बन्ध नम्बूदरी पुरुष और नायर स्त्री के बीच बनता, उसे कुछ साधारण रीतियों से एक झटके में समाप्त किया जा सकता था. यह पुरुष, नित नयी कन्याओं को भोगने के लिए स्वतंत्र थे. नम्बूदरी तथा नायर स्त्रियों की दशा शोचनीय होती गयी. इस प्रथा के मूल में, मातृसत्ता की आड़ में; नारी का दैहिक शोषण ही तो था. कालांतर में इस प्रथा को बंद कर दिया गया. परन्तु क्या इस पर आधारित, मातृसत्ता की अवधारणा सही ठहराई जा सकती है?

अतीत के साथ साथ, वर्तमान की भी कुछ चर्चा कर ली जाये. यहाँ घरेलू नौकरानियाँ व मजदूर औरतें भी थोडा- बहुत पढ़ी- लिखी होती है( प्रांत में सौ प्रतिशत साक्षरता होने के कारण). बेरोजगारी की समस्या व उनकी शिक्षा का स्तर कमतर होने के कारण, कोई अन्य (सम्मानजनक) कार्य वे कर भी नहीं सकतीं. उनमें से कुछ (मुस्लिम स्त्रियाँ), १४ से १६ वर्ष की उम्र में ब्याह दी जाती हैं. उनके पति छोटे- मोटे व्यवसायों या नौकरियों में होते हैं ( आटो रिक्शा चालन, बढईगिरी, श्रमिक, मैकनिक आदि). इन पढ़े- लिखे युवकों को, यह छोटे- मोटे काम रास नहीं आते और वे अक्सर सब छोड़छाड कर घर बैठ जाते हैं. उनका काम बस शराब पीने और कमाऊ बीबी पर हाथ उठाने तक सीमित रह जाता है. घरेलू हिंसा में केरल का स्थान, राजस्थान के बाद दूसरा है. शराबखोरी और पारिवारिक विघटन आदि के चलते, आत्महत्या के मामलों में भी; यह प्रांत शीर्ष स्थान पर है.

अब बात करें मेघालय की. यहाँ वंश परिवार की छोटी पुत्री के नाम पर चलता है. अधिकार और हैसियत कहने को तो उनके पास हैं पर गत वर्षों में लगभग, ५२ घरेलू हिंसा के मामले दर्ज़ हुए हैं; जिसका मुख्य कारण शराबखोरी बताया गया है. यह निष्कर्ष, नॉर्थ ईस्ट नेटवर्क नामक महिला संगठन द्वारा किये गये अध्ययन से निकाला गया है. संगठन की निदेशक मनीषा बहल के अनुसार,’इस प्रकार की घटनाओं की संख्या दिनबदिन बढ़ती जा रही है. ग्रामीण इलाकों की स्थिति बदतर है. रिपोर्ट करने के बजाय, आपसी सुलह द्वारा बात को दबा देना ही श्रेयस्कर माना जाता है.’

वरिष्ठ महिला पुलिस अधिकारी, आई नोंगरांग के अनुसार, ‘ पिछले ३१ सालों में, विधायक बनने वाली महिलाओं की संख्या नगण्य है. महिला पुलिस-बल के गठन का अधिकार भी पुरुषों के हाथ में है. यह मातृसत्ता का एक अँधेरा पहलू है.’

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