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एक नारी हो तुम…….

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यौवन की देहरी

लांघने के बाद

सुनाई देते हैं

स्वर वर्जनाओं के

कभी न कभी

हर नारी को ;

बचपन की

उछ्रंखल हंसी भी

घुटकर रह जाती है

कमोवेश

तंग दायरों में

सिकुड़ जाता है

उमंगों का विस्तार

जब फुसफुसाती हैं वर्जनाएं –

अरे! जरा धीरे हंसो

एक नारी हो तुम ;

अपनी हद में रहो

आहत होता है

उसका स्वाभिमान

कितनी ही बार ;

कामुक वचनों से

कामुक निगाहों से

पर वह करती नहीं प्रतिकार

रोक देती है

कोई अज्ञात शक्ति उसको

लड़ने से बारम्बार

फुसफुसाती हैं वर्जनाएं –

चुप रहो

कुछ मत कहो

उछालो ना

ऐसी बात

न होगा कुछ

तुम्हें हासिल

बस बदनामी

लगेगी हाथ

छटपटाकर

घायल अभिमान

के दंशनों से

बहलाती वह

खुद को

मर्यादा के खोखले

आश्वासनों से

झुठला दिए जाते हैं

दुर्गा और काली के चरित्र

जब अकारण ही-

फुसफुसाती हैं वर्जनाएं

यह ना करो

वह ना करो

एक नारी हो तुम ;

अपनी हद में रहो

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