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तुम तो ऐसी न थीं

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क्या हुआ है तुम्हें ?

तुम तो ऐसी न थीं-

मेरी प्रिय सखी

तुम्हारे अन्दर

जलती थी जो आग

देख न सकती थी

वह कुछ भी गलत होते हुये

सदा उठ खड़ी होतीं थीं-

तुम जुल्म के खिलाफ

क्या हुआ है तुम्हें ?

कल फहरातीं थीं

जो परचम नारी समानता के

आज क्यों धुंधला गयी –

तुम्हारी वो पहचान?

तुम तो दे देतीं थीं

अपनी मिठाई भी –

चुपके से माली की बिटिया को

क्या हुआ है तुम्हें ?

देखकर भी अब ,

नहीं देखतीं गरीब मुनिया को

सुना था;

सागर में मिलने के बाद

नदी खारी हो जाती है

जाना न था;

कि शादी के बाद-

मिट जाता है औरत का वजूद

पति का रसूख झलक रहा है

मुल्लमे सा, तुम्हारे चेहरे पर

क्या हुआ है तुम्हें?-

कि तुमको छूता न था-

कभी झूठा अभिमान

चापलूसी से था

नहीं कोई सरोकार

‘उनके’ अधिकारी की पत्नी

के सम्मुख

झुक जाती हो

बारम्बार

क्या हुआ है तुम्हें ?

कहाँ गया तुम्हारा ‘नारी स्वाभिमान’ ?

तुम तो ऐसी न थीं –

मेरी प्रिय सखी!
(मेरी एक पुरानी, संशोधित रचना)

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