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बहुत निरीह है आम आदमी
अखबार के पन्नों में
ढूंढता रहता है
फालतू सी लाटरी का नंबर;
उलझ जाता है
सनसनीखेज अफवाहों में-
बस यूँ ही
गटक लेता है
चाय की चुस्कियों के साथ
ख़बरों का वीभत्स सच
ज्यादा भेजा नहीं खपाता
कि वह तो –
बुद्धिजीवियों की विरासत है
उसे तो बस
उछाल देने हैं चंद जुमले
जब दफ्तर में
पान, सिगरेट का दौर चलता हो
होती हो चर्चा
देश विदेश की ;
एक नागरिक के तौर पे-
करना ही पड़ता है
‘जागरूकता’ का निर्वाह
पर बदलाव की वो बातें
उसकी ज़िन्दगी नहीं बदल पातीं
उबर नहीं पाता वह
‘नोन तेल लकड़ी’ के व्यूह से
बहुत निरीह है आम आदमी
कहने को कुछ भी नहीं है अपना
उसके पास
चंद अजान के स्वर,
कुछ मीठी ग़ज़लें,
कंठस्थ किये हुए श्लोक ,
या फिर मंदिरों की शंख ध्वनि-
यही सब हैं
उसकी सांस्कृतिक विरासत
वर्ना-
उधार की शिक्षा प्रणाली
उसे क्या देती भला ?!!
निम्न/मध्यम वर्ग की ‘चिप्पी’ को
उखाड़कर फेंक नहीं पाता
अपने वजूद से
पिसता रहता है
सड़ी हुई व्यवस्था के
कुचक्र में ;
गुंडाराज को देखकर भी
कर देता है अनदेखा
कि क्रांति नहीं है
उसके बस की बात
बहुत निरीह है आम आदमी
उस पर जबरन ही –
मढ़ दिया जाता है मतदान
बेईमानों की भीड़ से
चुनना होता है
कोई एक बेईमान
तब वो बाँट दिया जाता है
कई खेमों में
धर्म/ सम्प्रदाय /जाति के नाम पर
आम आदमी किसी बौखलाई हुई भेड़ सा है
जो चल पड़ता है
अपने झुण्ड के पीछे
बिना कुछ समझे ही
यह भी नहीं विचारता
कि क्या पता –
सामने कोई भेड़िया बैठा हो
घात लगाये
समाज का कोई ठेकेदार
हांक ले जाता है उसकी सोच को
चरवाहे की तरह
हो लेता है वह
दिशाहीन लोगों के साथ
मिलाकर
कदम से कदम
तब उसकी चाल
कहलाती है भेड़चाल
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