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वो भी क्या समय था! बसंत ऋतु में आत्ममुग्धा नायिका, बिल्व-पत्र पर प्रेम पाती लिखकर, धारा में बहा दिया करती थी, इस उम्मीद पर कि उसका प्रेमी नदी के दूसरे छोर पर उस पाती को पढ़कर, उसके मन की थाह पा सकेगा. कबूतर भी प्रेम के संदेशवाहक हुआ करते थे. कभी कभी नायिका की सखियाँ प्रेमी तक उसका संदेशा ले जाती थीं. प्रेम के तौर तरीके मर्यादित हुआ करते. लज्जा नायिका का गहना होता और नायक आँखों की भाषा में, भावनाओं को अभिव्यक्त करता. यह सब कुछ चुपके से होता.
पर आज के इस जेट युग में ये तौर तरीके बदल गए हैं. संबंधों में खुलापन आ गया है.मोबाइल, इन्टरनेट, चैटिंग, डेटिंग, पार्टियाँ आदि इनके शगल बन गए हैं. प्रेम एक उपभोग की वस्तु हो गयी है. बुके, दिल के आकार के पैंडल, गुब्बारे, केक जैसे उत्पादों से बाजार पटा पड़ा है. महंगे महंगे तोहफों से जहाँ प्रेमी प्रेम का सौदा करते हैं, वहीं व्यवसायी वर्ग को एक नया उद्योग मिल गया है- बाबा वैलेंटाइन के नाम पर. इस प्रेम के उत्सव पर उनकी खूब बिक्री होती है. चकाचौंध से भरे प्रेम आयोजनों में सजावट, पीने पिलाने, म्यूजिक आदि की व्यवस्था भी इनके धंधों में शुमार हो जाते हैं. ऑर्केस्ट्रा वाले हों, डांस वाले हों या गिफ्ट बेचने वाले दुकानदार, सभी की चांदी हो जाती है. हर तरफ इनके विज्ञापन देखने को मिलते हैं. इस तरह प्रेम एक व्यापार बनकर रह गया है .
खुलम्मखुल्ला इजहार और प्यार के बहाने कितने ही इश्तेहार! क्या इस तरह प्रेम की शुचिता भंग नहीं होती? प्रेम जो एक बेहद निजी भावना है, तभी गहराती है जब उसकी गरिमा बनी रहे. प्रसिद्ध कवि डॉ. श्री हरिवंश राय बच्चन जी की कविता की इन पंक्तियों पर गौर फरमाइए-
प्यार किसी को करना लेकिन कहकर उसे बताना क्या,
गुण का गाहक बनना लेकिन गाकर उसे सुनाना क्या!
आजकल ब्वॉय फ्रेंड और गर्ल फ्रेंड रखना स्टेटस सिम्बल हो गया है. आज की नायिका कीमती उपहार और दावत के लोभ में किसी की वैलंटाइन बन जाती है. लिव इन रिलेशन में शरीर की पवित्रता को दांव पर लगा कर एक दूसरे को आजमाया जाता है. क्या किसी को परखने के लिए बौद्धिक और वैचारिक कसौटियां काफी नहीं? फिर देह सम्बंधों को अहमियत क्यों ? इस अनैतिक नयी सोच के खिलाफ, समस्त जनचेतना को एकजुट हो जाना चाहिए . यही समय की मांग भी है.
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