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क्या देशभक्ति, महज एक किताबी लफ्ज़ बनकर रह गया है?

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“कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
हिंदी हैं हम वतन है हिन्दोस्तां हमारा”
देशप्रेम का ये जज्बा वक़्त के साथ साथ फीका पड़ता जा रहा है. मजहब, जात पांत और क्षेत्रीयता ने हमें इतने खेमों में बाँट दिया है कि देश के नाम पर हम एकजुट नहीं हो पाते. बोडो आन्दोलन, माओवाद और नक्सलवाद में हमारे टूटने के संकेत हैं . महाराष्ट्र में कितने ही बिहारी युवाओं के हितों पर चोट की गयी. राष्ट्र का पतन यहीं पर नहीं थमा. रही सही कसर भ्रष्टाचार ने पूरी कर दी जो देश की समृद्धि को दीमक की तरह चाट रहा है. भ्रष्ट नेता वोट बैंक के खातिर, आतंकवाद और जातिवाद का पोषण कर रहे हैं. देश की जरूरत को दरकिनार कर मंत्री, तुष्टीकरण की राजनीति खेल रहे हैं. व्यवस्था की अधोगति क्या देशप्रेम की प्रासंगिकता पर, सवाल नहीं खड़ा कर रही? निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर, गर देश हित की सोचते तो घोटालों की लम्बी फेहरिस्त न होती- बोफोर्स घोटाला, आदर्श सोसायटी घोटाला, राष्ट्रमंडल खेल घोटाला व टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला आदि आदि . नीरा-राडिया टेप ने मीडिया की विश्वसनीयता पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया. न्यायपालिका के जजों के नाम अवैध संपत्ति होने के मामले सामने आये हैं. ऐसे में कौन है, जो बिकाऊ नहीं है? समय की मांग है कि हम सब देशवासी अपने दिलों में फिर वही भावना जगाएं जिसके तहत हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सब एक हो गए थे. वह लडाई थी विदेशी अंग्रेजों के विरुद्ध और आज की लड़ाई है अपने ही अन्दर के दुश्मनों से. दोनों ही लड़ाइयों का उद्देश्य, सम्मान की रक्षा में निहित है. आइये हम और आप तहेदिल से, महाराष्ट्र के उस प्रशासनिक अधिकारी को सलाम करें, जिसे पैट्रोल माफिया ने ज़िंदा जला दिया और मिलिट्री के उस डॉक्टर को भी जिसने अपने साथियों को मानव बम के कहर से बचाने के लिए, जान कुर्बान कर दी . देश के पुराने गौरव को याद करें जब सूफी संतों ने मुस्लिम होते हुए भी राम और कृष्ण का गुणगान किया.आज भी केरल जैसे राज्यों में हर वर्ग और संप्रदाय के लोग मिलकर सारे उत्सव मनाते हैं. हमारी इस गंगा जमुनी, सनातन संस्कृति में तो सभी धर्मों, सभी मान्यताओं को समाहित कर लेने की क्षमता है. फिर दिक्कत कैसी?

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