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पंगु बनती हुई युवा सोच; अभिभावकों का दायित्व

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कुछ अरसे पहले घटी एक घटना का उल्लेख करना चाहूंगी. हुआ यूँ कि मेरी एक परिचिता रिक्शे पर बैठकर कहीं जा रहीं थीं. रास्ता अनजान था; इस वास्ते, एक मोटरसाइकिल सवार को रोककर, उन्होंने अपने गंतव्य का पता पूछा. संभ्रांत से दिखने वाले उस नवयुवक ने आव देखा न ताव, झट उनकी सोने की चेन खींची और वहां से रफूचक्कर हो गया. इस बात से वे बहुत आहत हुईं. उन्हें चेन जाने का उतना अफ़सोस न था जितना इस बात का कि उनके बेटे की उम्र के एक लड़के ने, जो दिखने में भले घर का लगता था , उनके विश्वास को ठेस पहुंचाई. इतनी चमचमाती हुई मोटर सायकिल थी उसकी, टिप टॉप कपड़े . फिर क्या जरूरत थी ऐसा करने की? इस सवाल का जवाब शायद आज के युवाओं की जीवन शैली में ढूंढना होगा. नित नए फैशनेबल परिधान, पार्टियों की धूम, डिस्को, डेटिंग, महंगे होटलों में खाना. इन सबके लिए पैसे कहाँ से आयेंगे. उनके झूठे ‘शो ऑफ़’ के लिए, माँ बाप जब पैसे देने से इनकार कर देते हैं तो उनमें से कई अपराध की दुनियां में कदम रख देते हैं. इसी से अभिभावकों को चाहिए कि शुरू से ही बच्चों की इच्छाओं पर नियंत्रण रखें. उनकी हर मांग के आगे घुटने न टेकें. कुछ तरुणियाँ ‘टेबल मैनर्स’ का कोर्स महज इसलिए करती हैं कि आधुनिक परिवार की बहू बनने में अड़चन न हो. रसोईं में बैठकर, गरमागरम चपाती खाने की पुरानी परंपरा लुप्त सी हो गयी है. कहाँ हैं- सादा जीवन उच्च विचार का हमारा पुराना जीवन दर्शन? दिखावा हम पर इस कदर हावी क्यों हो गया है कि उसी में जीवन की सार्थकता नजर आने लगी है? क्या बच्चों को संस्कार की घुट्टी पिलाना, अभिभावकों का कर्त्तव्य नहीं;या आज की भागती जिन्दगी में उनके पास समय ही नहीं है, उन्हें कुछ सिखाने का. बच्चों को जेबखर्च देकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं. या फिर वे स्वयं ही ‘उधार की संस्कृति’ से अभिभूत हो गए हैं और गुलाम मानसिकता को छोड़ नहीं पाते. आधुनिक होने का ये अर्थ नहीं कि सब मान्यताएं दकियानूसी लगने लगें . हमारी सांस्कृतिक विरासत इतनी समृद्ध है, फिर क्यों हर बात में पश्चिम का अन्धानुकरण करें? इस सबके चलते, माइकल जैकसन के आगे सुब्बालक्ष्मी की चमक फीकी पड़ जाती है! क्या हमारी अस्मिता, अपनी पहचान खोने से धुंधली नहीं पड़ेगी?

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