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“पुरुषस्य भाग्यम, त्रिया चरित्रं देवो : न जानति” संस्कृत में कही गयी यह उक्ति संपूर्ण स्त्री मानसिकता को कठघरे में ला खड़ा करती है. पर क्या पुरुष पूरी तरह से दोषमुक्त हैं ? क्या उनकी सोच अवसरवादिता का परिचय नहीं देती ? क्या यह सच नहीं कि पुरुष वर्ग ने अपनी सहूलियत के अनुसार ऐसे सामाजिक नियम बनाये, जिसके बूते वे स्त्रियों पर शासन कर सकें? पत्नी के होते हुए भी, परायी औरत को बरगलाना क्या उनमें से कइयों की फितरत नहीं रही? नारी को कोमलांगी करार देकर ये कभी पिता, कभी पति और कभी भाई के रूप में उसके रक्षक बन जाते हैं; पर इसके बदले उसके अस्तित्व को गिरवी रख लेते हैं. क्या ये उनके दोगले चरित्र की निशानी नहीं? गृहलक्ष्मी को परिवार के लिए छोटा सा निर्णय लेने की आज़ादी भी नहीं . फिर वो काहे की लक्ष्मी ? अपनी बात मनवाने के लिए यदि वह त्रिया हठ का सहारा ले तो अचरच कैसा ?! एक कन्या और उसके भाइयों के लालन पालन, शिक्षा यहाँ तक कि खान पान में जो भेदभाव बरता जाता है, वही व्यवहार बच्ची में ऐसी कुंठा पैदा करता है , जो बड़ी होने पर उसके त्रिया हठ का रूप ले लेती है. पर आजकल परिवार के समीकरण बदल रहे हैं. जागरूक माँ बाप बेटी को महज इसलिए शिक्षा नहीं देते, ताकि उसका विवाह कर सकें. बल्कि उसे समग्र विकास का अवसर प्रदान करते हैं. इंदिरा गाँधी, किरण बेदी और सायना नेहवाल जैसी शख्सियतें इस बात का जीवंत उदाहरण पेश करतीं हैं कि औरत का दखल राजनीति से लेकर खेलकूद तक, जीवन के हर क्षेत्र में बढ़ रहा है. अभी भी कुछ घरों में सास- बहू, जेठानी – देवरानी और ननद- भावज के बीच अवांछित टकराव होते रहते हैं. दुर्भाग्य से उन स्त्रियों को इतनी बुद्धि नहीं कि नारी होकर नारी की खिलाफत ठीक नहीं. फिर भी, आज के परिप्रेक्ष्य में औरत को ये इलज़ाम देना कहाँ तक सही है ?
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